भारत के 12 से ज्यादा गांवों में रोजगार का जरिया है पाकिस्तान का ‘मुक्का’, जानें- पूरी डिटेल

बाड़मेर. एक ही जमीन के दो रंगो और दो मुल्कों में तब्दील होने के बाद सरहद के दोनों तरफ हजारों लोग इधर से उधर आकार बस गए. यही लोग अपने साथ अपने हस्तशिल्प और कारीगरी भी लेकर आए. उन हस्तशिल्प में से सरहद के उस पार सिंध से मुक्का कला भारत आई. यही शिल्प आज सैकड़ों परिवारों की आजीविका का साधन बनी हुई है. लेकिन सरकारी सरक्षंण के अभाव में अब मुक्का दम तोड़ रहा है.

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सिंध और हिन्द के बीच बरसों से बेटी और रोटी का नाता कायम है. इसी नाते के साथ कई परिवार सरहद पार के हस्तशिल्प को अपने आजीविका का आधार बनाए हुए है. “मुक्का”. महीन रंग बिरंगे धागों से बनने वाला है. मुक्का सिंध में विवाह के वक़्त बेटी को दिए जाने वाला सबसे खास परिधान का आधार था. कभी मुक्का सोने और चांदी के धागों से कपड़े पर सजता था, लेकिन उसकी जगह अब रंग बिरंगे धागों ने ले ली है. बहुत ज्यादा मुश्किल और मेहनतकश कारीगरी को लेकर आज भी सैकड़ों दस्तकार इसको बनाने में जुटे हुए हैं.

3 से 4 महीनों में तैयार होता मुक्का
सरहदी बाड़मेर के एक दर्जन से ज्यादा गांवों में मुस्लिम समुदाय की औरतें सूत के चमकीले, लाल, नारंगी, हरे, पीले, नीले और गुलाबी धागों से अपनी बेटियों और बहनों को दहेज में उपहार मुक्के के परिधान दे रही है. एक परिधान को बनने में 3 से 4 महीने लग जाते हैं. लेकिन बाजारों में मेहनत का परिणाम कभी पैसों में नहीं बदलता है.

मुक्का को नहीं मिल पाया बाजार
बदलते दौर में ना तो इस मुक्के का कोई बाजार उपलब्ध हो पाया और ना ही इनकी मेहनत का कोई बड़ा ख़रीरदार नजर आता है. मुक्के को साड़ी, कुर्ती, बैग, पुशनकवर, वॉल कवर और बेडशीट सहित कई घरेलू उपयोगी वस्त्रों और उत्पादों पर उकेरा जा रहा है. बाड़मेर शहर से 25 किलोमीटर दूर बिशाला गांव की जरीना ने बताया कि अब मुक्का महज परिधानों तक ही सीमित रह गया है. सिंध प्रांत से आई मुक्का बरसो पुरानी कला है. अब सरक्षंण नहीं मिलने के कारण कुछ ही घरों तक सीमित रह गया है.

बाड़मेर में संस्कृति, कला, साहित्य, शिल्प एवं लोकरंग के सरंक्षण में लगी समाजसेवी संस्थान श्योर ने मुक्का के संरक्षण के लिए आगे आई है. श्योर संस्थान ने ना केवल मुक्के को पारंपरिक परिधानों से आगे बढ़ाया है. बल्कि इसको व्यवसायिक बाजार भी दिया है. श्योर ने विभिन्न ट्रेनिग का भी आयोजन कर इसके सरंक्षण के लिए प्रयास किए है जोकि सफल होते नजर आ रहे है. श्योर संस्थान के संयुक्त सचिव लता कछवाह का कहना है कि मुक्का कला पाकिस्तान के सिंध प्रांत की है जो देश विभाजन के समय भारत आ गई थी. अब इसको सरक्षंण की दरकररार है. सरक्षंण के अभाव में मुक्का अब सीमित हो हो गया है.

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