मजहब से नहीं है हिजाब का कोई नाता, संस्कृति से है इसका वास्ता: हाई कोर्ट

कर्नाटक हाई कोर्ट ने मंगलवार को कहा कि पवित्र कुरान में हिजाब पहनने को अनिवार्य नहीं बताया गया है। यह एक सांस्कृतिक प्रथा है और सामाजिक सुरक्षा के उपायों के तहत परिधान के रूप में इस्तेमाल की जाती है।

मजहब से नहीं है हिजाब का कोई नाता, संस्कृति से है इसका वास्ता: हाई कोर्ट

कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, “अधिक से अधिक, इस परिधान को पहनने की प्रथा का संस्कृति से कुछ लेना-देना हो सकता है, लेकिन निश्चित रूप से धर्म से नहीं।

यूसुफ अली के नोट 3764 से लेकर पद 59 तक में ऐसी जानकारी मिलती है, जो इस प्रकार है: ‘असुरक्षा के हालात में बाहर जाते समय वस्त्रों से खुद को ढकने के लिए कहा गया। इस पर कभी विचार नहीं किया गया कि उन्हें कैदियों की तरह अपने घरों तक सीमित रखा जाए।”

हाई कोर्ट ने कहा कि मानव जाति का इतिहास महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार और उत्पीड़न के उदाहरणों से भरा पड़ा है। जिस क्षेत्र और समय से इस्लाम की उत्पत्ति हुई, वह कोई अपवाद नहीं था। अदालत ने कहा कि इस्लाम की शुरुआत से पहले के युग को जाहिलिया-बर्बरता और अज्ञानता के समय के रूप में जाना जाता है।

अदालत ने कहा कि “कुरान ‘निर्दोष महिलाओं के साथ छेड़छाड़’ के मामलों के लिए चिंता दिखता है। इसलिए सामाजिक सुरक्षा के उपाय के रूप में इस और अन्य परिधानों को पहनने की सिफारिश की गई है। हो सकता है कि इस बीच धर्म के कुछ तत्वों ने प्रवेश किया हो। यह प्रथा आमतौर पर किसी भी धर्म में होती है।”

 

अदालत ने कहा, “हालांकि, यह स्वयं इस प्रथा को मुख्य रूप से धार्मिक और इस्लामी आस्था के लिए बहुत कम आवश्यक नहीं बनाता है। यह अली के फुटनोट 3768 से 60 वें पद से साफ हो जाता है जो निम्नलिखित गहन पंक्ति के साथ समाप्त होता है….काश! हमें अपने आप से यह प्रश्न पूछना चाहिए: ‘क्या आज हमारे बीच ये स्थितियां मौजूद हैं?’ इस प्रकार, यह उचित रूप से माना जा सकता है कि हिजाब पहनने की प्रथा का उस क्षेत्र में प्रचलित सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों से गहरा संबंध था।”

 

Leave a Reply

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Discover more from Muzaffarpur News

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading