मुजफ्फरपुर : स्वच्छ और स्वस्थ समाज का मूल हमारे तीज-त्योहारों में है। छठ भी उनमें से एक है। इसमें शारीरिक शुद्धिकरण से लेकर नदी-तालाबों की साफ-सफाई का महत्व है। यह परंपरा वर्षों से विद्यमान है, तमाम आधुनिकताओं के दौर में भी ठसक से स्थापित है।
इसका आज भी निवर्हन हो रहा है। छठ की बुनियाद ही स्वच्छता है। घर से लेकर तालाब और नदी घाटों तक साफ-सफाई की जाती है। रास्तों को साफ किया जाता है। पूजा स्थल की गाय के गोबर से लिपाई होती है।
यह पर्व शरीर को निरोग करने का महाआयोजन है। नहाय-खाय में अरवा चावल के साथ चने की दाल और कद्दू की सब्जी से लेकर खरना में ग्रहण किए जाने वाले रोटी-रसियाव तक का जुड़ाव स्वास्थ्य से है।
छठ के गीतों में भी साफ-सफाई के संदेश छिपे हैं। छठ घाटों को साफ करने से लेकर रास्तों को धोने तक की परंपरा चली आ रही है। सूर्य देवता को भी साफ-सफाइ पसंद है।
वे व्रतियों से कहते है -कोपी-कोपी बोलेले सुरुज देव, सुन ए सेवक लोग, मोरे घाटे दुबिया उपजि गइले, मकड़ी बसेरा लेले, बिनती से बोलेले सेवक लोग सुन ए सुरुज देव, रउआ घाटे दुबिया हटाई देब, मकड़ी भगाई देब।
एक दशक से छठ कर रही अल्का शरण के अनुसार इस गीत का सार यह है कि छठी मईया भक्त को कह रही हैं कि मेरे घाट पर गंदगी फैल गई है।
उसे साफ करो, गंगा और दूसरी नदियों को बचाने का जिम्मा थामे लोगों को छठ का स्पष्ट संदेश है कि इससे संपूर्ण समाज को सहज भाव से शामिल करके ही अपेक्षित मुकाम पाया जा सकता है यानी सहभागिता से ही स्वच्छता संभव है। इसलिए पूजा के दौरान स्वच्छता का पूरा ख्याल रखा जाता है।





