MUZAFFARPUR : कुशासन की भेंट चढ़ते नौनिहाल, आखिर मासूमों की मौ’तों का जि’म्मेवार कौन?

MUZAFFARPUR : देश की सबसे बड़ी खबर अभी बिहार के मुजफ्फरपुर स्थित केजरीवाल अस्पताल और एसकेएमसीएच से ही निकल रही है, जिसने न जाने कितने ही चैनलों की टीआरपी उच्चतम स्तर पर पहुंचा रखी है. एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस)/मस्तिष्क ज्वर/चमकी बुखार/जापानी इन्सेफेलाइटिस, अज्ञात बीमारी कुछ भी कह लें पर इस महामा’री की चपेट में आकर तो मासूम ही अपनी जा’न गँ’वा रहे हैं, असमय का’ल के गाल में समां रहे हैं. न जाने कितनी ही घर, कितनी ही माँओं की गोद सुनी कर जा रहा है यह अज्ञात बीमारी. जिस आँगन में बच्चों की किलकारियां गूंजा करती थी, अब वहां मा’तमी सन्नाटा पसरा है. कई दिन से श्म’शान सोया नही है, रात दिन सफेद चादर में लिपटे मासूम पहुँच रहे है.

यह कोई नई बात नहीं, मुजफ्फरपुर में दिमागी बुखार का पहला मामला 1995 में सामने आया था. 1995 से इस अज्ञात बी’मारी ने कितने ही मासूमों को ली’ल लिया. पर हमारी सरकारें तब से लेकर अब तक इस अज्ञात बीमारी की जांच और शोध ही करवा रही है. कितने ही डॉक्टर वैज्ञानिक आये गाँव गाँव जाकर लीची से लेकर बाग बगीचों के मिटटी के सैंपल उठाये गए, पर कोई भी रिसर्च अथवा शोध किसी अंजाम पर नहीं पहुँच सका. इसकी रो’कथाम के लिए जो उपाय किए जाते थे वो भी इस साल लोकसभा चुनाव के प्रचार-प्रसार और शोर में कहीं गुम हो गए.

कहा जा रहा है कि गरीबी और कु’पोषण की वजह से बच्चों की मौ’त हो रही है. लेकिन इसके लिए भी जिम्मेदार सरकार ही है. बच्चों को कु’पोषण से बचाने के लिए सरकार कई योजनाएं चला रहीं है. उसके लिए करोड़ों के बजट का प्रावधान है, इसे क्रियान्वित करने को समाज कल्याण का एक पूरा अमला तैनात है, जिसमें एएनएम-आंगनबाड़ी सेविकाओं की बहाली की गई हैं. उनकी मॉनिटरिंग के लिए बाल विकास परियोजना यानि सीडीपीओ की एक पोस्ट हर जिले में होती है. ये सीडीपीओ पद पर प्रतिनियुक्त अधिकारी आखिर करते क्या हैं, इन पर कभी कोई सवाल क्यों नहीं उठाता? केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित इस योजना में केवल लू’ट ही लू’ट नजर आती है. गरीब और कुपोषित बच्चों का निवाला आखिर किन भ्र’ष्ट अधिकारियों के जेब में चला गया. उन पर कोई का’र्रवाई क्यों नहीं होती? सवाल यह होना चाहिए की इस योजना की सफलीकरण हेतु पूर्व में क्या-क्या कार्य किये गए, जो इतना कोह’राम मचने के बाद किये जा रहे हैं. पिछले ढाई दशकों से लगभग हर साल बड़ी संख्या में मा’सूमों को ली’लने वाली इस बी’मारी से निपटने के लिए सरकार के पास क्या रणनीति है?

इस बीच राज्य सरकार के साथ ही खुद को भी घिरता देख केंद्र सरकार ने देश के चर्चित चैनल की एक एन्कर को मैदान में उतारा, और उन्होंने बख़ूबी ऐसा काम किया ऐसा माहौल तैयार किया कि डॉक्टर, नर्स और अस्पताल-प्रबंधन सभी पल भर में खल’नायक की भूमिका में नज़र आने लगे. मासूमों के इलाज की आपाधापी में अस्पताल के डॉक्टरों पर सवाल दागने, उन्हें सवालों में उल’झाने से कुछ हासिल नहीं होगा, सिवाय उनका समय बर्बाद करने के. सवाल मौजूदा सरकार से होना चाहिए कि पिछले चार-पांच सालों में ही कई सौ बच्चे असमय का’ल के गाल में समा गए, ऐसे में सरकार ने इस दिशा में बेहतरी के लिए अब तक क्या-क्या ठोस कदम उठाए हैं.

सवाल होने चाहिए वर्तमान केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन से, जो 5 साल पहले 2014 में भी इसी बीमारी के दौरान मुजफ्फरपुर आये थे और मीडिया में यह बयान दिया था कि इस बीमारी का पता लगाने के लिए अनुसंधान किया जाएगा लेकिन पांच साल बाद भी अभी तक अंजाम वही ढाक के तीन पात साबित हुए. इसलिए इन मासूम बच्चों की मौ’त के लिए केंद्र सरकार भी उतनी ही जि’म्मेदार मानी जायेगी जितनी राज्य सरकार. हमेशा से ही मौ’तों के बाद राजनीतिक बया’नबाजी शुरू होती है, जबकि चुनाव के दौरान यह मु’द्दा उठाया जाना चाहिए.

सवाल होना चाहिए मौजूदा सांसद से जिन्हें 01 जून से 22 जून के दौरान पिछले 22 दिनों के दौरान केवल एक बार देखा गया, वो भी तब जब केंद्र में उनकी सरकार के केंद्रीय मंत्री पहुंचे. सवाल उनसे होना चाहिए की अस्पताल में पीने योग्य पीने के पानी की किल्लत है, मरीजों के परिजनों को बैठने की जगह नहीं है, जगह-जगह लगे पंखे नहीं चल रहे, वाटर प्यूरीफायर ख़राब पड़े हैं, यह कुव्य’वस्था की जि’म्मेवारी किसकी है. इतने वि’षम परि’स्थितियों में भी शहर के सांसद महोदय संवे’दनशील नहीं हैं, तो इसका जवाब बच्चों का इलाज कर रहे डॉक्टर क्यों दें?

सवाल यह होना चाहिए की 2016 में जब नीतीश कुमार ने बड़ा अस्पताल और बेहतर सुविधा विकसित करने का वा’यदा किया था, उसका क्या हुआ. और कितने वर्ष लगेंगे मासूम बच्चों की मौ’त पर लगा’म लगाने में. ये तमाम बातें इस बात की ओर इशारा कर रही हैं कि सरकार इस विप’त्ति के लिए पहले से तैयार नहीं थी. हालांकि, यह विप’त्ति अचानक नहीं आई है हर साल आती रही है लेकिन इस बार बड़ा वि’कराल रूप धारण कर आई है और यही कारण है कि भविष्य में सरकार को अपने स्वास्थ्य सम्बन्धी व्यवस्थाओं को लेकर गंभीर सोच बनानी ही होगी. एक दूसरे पर दो’षारोपण की बजाय बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था विकसित करने की दरकार है, जिससे नौनिहालों को कुपोषण का शिकार न होना पड़े और ऐसी भ’यावह स्थिति उत्पन्न न हो.

कहीं न कहीं कमी हम जैसे मीडियाकर्मियों की भी है, मीडिया जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है और जिसका काम विपक्ष की भूमिका अदा करना है. पिछले पांच सालों में गोरख़पुर से लेकर मुजफ्फरपुर तक प्रत्येक वर्ष गर्मियों में और अधिक विकराल रूप धारण कर आने वाली इस अज्ञात बीमारी की रोकथाम के लिए सरकार और प्रशासन की ओर से क्या प्रबंध किये जा रहे हैं, क्या-क्या कार्य हुआ और हो रहा है, बच्चों को कुपोषण से बचाने के लिए केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित कई योजनाएं चल रहीं है. गाँवों-देहातों में इस योजना का क्रियान्वयन सही ढंग से हो रहा है या नहीं. उसपर कोई कवरेज क्यों नहीं की? हम सिर्फ़ दूसरों से ज़िम्मेदारी की मांग और अपेक्षा नहीं कर सकते है. कुछ मौके ऐसे होते हैं जहाँ पर हमसे भी सवाल किया जा सकता है.

जानकारी के अनुसार टीकाकरण के राष्ट्रीय कार्यक्रम, यूनिवर्सल इम्युनाइजेशन प्रोग्राम में जापानी इसेंफलाटिस के प्रतिरोध का टीका भी शामिल है और इसमें देश के वे सारे जिले शामिल हैं जहां यह बीमारी पाई जाती है. यह कार्यक्रम सीधे केंद्र सरकार के नियंत्रण में चलता है. किसी भी रिपोर्ट में इस कार्यक्रम का जिक्र नहीं है. यह सवाल कोई नहीं कर रहा है कि इस कार्यक्रम का क्रियान्वयन बिहार, खासकर मुजफ्फरपुर में किस तरह हुआ है? यह सवाल बिहार सरकार से लेकर केंद्र सरकार की नौक’रशाही और राजनीतिक नेतृत्व के निक’म्मेपन को सामने ला देगा.

नीतीश सरकार ने भी जापानी इंसेफेलाइटिस और एईएस के बढ़ते मामलों के मद्देनजर 2015 में मानक संचालन प्रक्रिया (SOP) की शुरुआत की थी. 2012 में 120 बच्चों की मौ’त हुई थी, जबकि 2014 में म’रने वालों की संख्या 90 थी. इंसेफेलाइटिस से लड़ने के लिए 2015 के SOP की शुरुआत यूनिसेफ के परामर्श से बिहार के स्वास्थ्य विभाग ने शुरू की थी. इन प्रयासों से ने 2016 और 2017 में इंसेफेलाइटिस से म’रने वालों बच्चों की संख्या में गिरावट तो आई लेकिन इस साल के हालात को देखकर यह स्पष्ट हो गया कि SOP का पालन ही नहीं किया गया था. बस, सहानुभूति होती है उन डॉक्टरों से, जो दिन-रात एक करके इन गरीब बच्चों को बचाने में लगे हैं. सरकारों के लिए वे ही बलि का बकरा हैं क्योंकि म’र रहे बच्चों की चिंता न तो सरकार को है और न आईएमए को. सब राजनीति में उलझे पड़े हैं.

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