मुजफ्फरपुर : इतिहास में कुछ भारतीय क्रांतिकारियों को दूसरे दर्जे का स्थान दिया गया है जबकि भारतीय क्रांतिकारियों ने अपना सब कुछ उन लोगों से ज्यादा खोया है जो मुख्य धारा के राजनैतिक दलों के साथ एक खास ग्रुप में अपने आप को सुरक्षित महसूस करते रहते थे। जितनी भी कुर्की जब्ती, जासूसी, छापेमारी या अन्य दमनकारी अभियान हुए वो सब एकतरफा इन क्रांतिकारियों ने अपने ऊपर झेला था। यह कहना है कि बीआरए बिहार विश्वविद्यालय मुजफ्फरपुर के इतिहास विभाग के शोघ के छात्र कुमार पुष्पम् अभिषेक का। उनका कहना है कि हमारे शुरुआती इतिहासकारों की जो प्रवृत्ति रही थी वो कहीं न कहीं आराम व कुर्सी पसंद लोगों की रही थी, क्योंकि यह फौज इंग्लैंड से पढ़कर आई थी और इतिहास को अंग्रेजी समाचार पत्रों व अंग्रेजों के फाइलों से निकालने का प्रयास कर रही थी। इसलिए हमें 75 वर्ष लगे काकोरी रेल डकैती को काकोरी रेल एक्शन फाइलों में कहने के लिए। इस तरह की घटना पूरी दुनिया को हिलाने के लिए काफी है। मगर भारत में इसको एक सनसनीखेज नाम देकर छोड़ दिया गया। इसी के साथ अन्य रेल एक्शन का तो नाम भारतीय इतिहास से संपूर्ण तरीके से हटा दिया गया। जैसे हाजीपुर रेल एक्शन जिसकी वर्षगांठ 15 जून को होती है, लेकिन न किसी नए पीढ़ी को इसके बारे में जानकारी है न किसी को सुध लेने की चिंता। इस एकसन कार्रवाई की विशेषता यह है कि भगत सिंह, चन्द्रशेखर जैसे क्रांतिवीरों के न रहने के बावजूद भी बिहार के क्रांतिवीरों ने मद्धिम होती क्रान्ति की ज्वाला को फिर से तेज करने का प्रयास किया। जिसके कारण नई पीढ़ी आजादी की लड़ाई के लिए फिर अपने खून में उबाल महसूस किया। जिसका नतीजा हमको 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में साफ-साफ दिखता है।
छात्र कुमार पुष्पम का कहना है कि विश्व के सांस्कृतिक पटल पर विख्यात मुजफ्फरपुर वर्तमान में उत्तर बिहार की अघोषित राजधानी है। प्राचीन ऐतिहासिक समृद्धि से अटा-पड़ा जिला लिच्छवी गणतंत्र तथा भज्जी संघ की स्थापना की जन्मभूमि तथा विश्व के इतिहास में राजनीतिक शिखर पर विराजमान रहकर अपनी की्त्तित को स्थापित किया है। मध्य एशिया में जब मौर्य वंश की विस्तार एवं पाटलीपुत्र को राजधानी घोषित करते बख्त भी मुजफ्फरपुर के महत्व को भूलाया नहीं गया था। इस प्रकार यह कहना अतिशयोक्ति नहीें होगी कि स्वतंत्रता के इतिहास में मुजफ्फरपुर हमेशा एक शक्तिशाली भूमिका निभाता रहा है और शक्ति केन्द्र बना रहा। इतना हीं नहीं मुजफ्फरपुर के गौरवशाली इतिहास में चार चांद भगवान महावीर का जन्म तथा भगवान बुद्ध के कृतित्व से भी लगा जिन्होंने यहां की माटी को अपने ओज एवं आभा-प्रज्ञा से प्रकाशित किया। उपरोक्त ऐतिहासिक गरिमा प्रकृति ने भौगौलिक विविधताओं से भी यहां की धरती को सजाया संवारा है। गंगा, गंडक, बागमति, कोशी की धाराएं जहां बाढ़ की विभीषिका पड़ोसती रही। वहीं दूसरी तरफ धरती की उर्वरा शक्ति तथा अनाज में पौष्टिकता का वरदान भी प्राप्त होता रहा। फलत: यहां की हवा की सोंधी खुशबु ने अपने उत्पादों में अलग स्वाद, खुशबू और पुष्पों में रंगिनियों की छटा प्रदान की जिसका असर चहुंओर दृष्टिगोचर होता रहा है और रंगिनियों से वातावरण भी सुरभित होती रही है। यह क्षेत्र राजतैनिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा दैनिक संपदाओं से ओत-प्रोत रहा है। एक तरफ अति प्राचीन मंदिर-मस्जिद ने जहां ऐतिहासिक धरोहरों की गवाही पेश करने को उद्धत रहा है वहीं इस क्षेत्र का ऐतिहासिक महत्व ने इतिहासकारों को हमेशा सोचने विचारने एवं अपनी लेखनी की धार से सींचने को हमेशा उत्प्रेरित किया है। बाबा गरीबनाथ मंदिर, देवी मंदिर, चतुर्भूज स्थान मंदिर, चामुण्डा स्थान, मुजफ्फर शाह, दाता कंबल शाह, कांटी दरगाह, वैशाली का डनेमनउ, अशोक स्तंभ के शिलालेख इत्यादि धरोहर के रुप में इतिहास दोहराने को आज भी उद्वेलित है।
तुर्की, पठान, पर्सियन मुख्यत : मुस्लिम दक्षिण एशियन क्षेत्र में आने के बाद उन्होंने छोटे-छोटे विखंडित राज्यों पर अपना कब्जा नयी तकनीकी के बदौलत स्थापित किया। भारतीयों के दिल में बसने वाले धार्मिक भावनाओं को कुचलना प्रारंभ किया। बहुत सारी गुप्त बातें आज इतिहास के पीछे दफन है जिसे सांस्कृति मिलावट, सामाजिक-आर्थिक विघटन एवं हिन्दू इस्लामिक आर्किटेक्चर द्वारा मिक्स कर दिया गया। अत्याचार न केवल व्यक्तिगत क्षति के रुप में परिलक्षित हुआ बल्कि शहरों का पुन: नामाकरण, पुस्तकालय तथा अन्य धार्मिक स्थलों में तोड़-फोड़, आगजनी तथा जबरदस्ती धार्मिक बदलाव का ताना बाना भी बोया गया। इस प्रकार धर्म का नाम भी मिलावट हो गया जिसे अल विरुनी ने अपने किताब कियाव-अल-हिन्द और तुगलकपुर तुहलक के अंदर वर्णित किया है। यद्यपि हाजीपुर का क्षेत्र एक तरफ जहां शासक वर्ग के लिए मुफीद था क्योंकि पटना के नजदीक गंगा एवं गंडक के किनारे बसा यह क्षेत्र मजबूती से नियंत्रित करने में सुविधाजनक था। लेखक फरिश्ता के लेख के अनुसार हाजीपुर काफी महत्वपूर्ण शासकीय क्षेत्र था जहां से चंपारण, मुजफ्फरपुर, सरैया, समस्तीपुर, बेलागाछी, बेगूसराय तथा खगड़िया को नियंत्रण किया जाता था। प्रत्येक लोगों के जुबां पर यह बात है कि मुजफ्फरपुर शहर का नाम मुजफ्फर शाह जो एक सूफी संत थे, लेकिन यह मान्यता भी उचित प्रतीत होती है कि मुजफ्फरपुर अकबर के गवर्नर मुजफ्फर खान तुरवाती जिन्होंने अफगानों को तेघड़ा (बेगूसराय) की लड़ाई में मात देकर मुशल सल्तनत की कामयाबी दिलायी के दिलेरी को याद रखने हेतु रखा गया है।
नोनी का संग्रहण वाले गोदाम को सोडा गोदाम कहा जाता था जो कालान्तर में सोडा गोदाम हो गया। यह सोडा गोदाम मुजफ्फरपुर में भी देखा जा सकता है। मुजफ्फरपुर के लक्ष्मी चौक, एमएसकेवी, कॉलेज पुलिस लाईन चौक के पास, वेयर हाउस काजी मोहम्मदपुर थाना, से सभी आज भी गवाह के रुप में विराजमान है। आज भी सरैया कोठी का यह गोदाम दृष्टिगोचर है जहां से मोतीपुर, सरैया एवं बरुराज तक की विपणन व्यवस्था संभाली जाती थी। पहला जो आंदोलन यूरोपियनों के खिलाफ हुआ जिसे नोनिया आंदोलन के रुप में हीं जाना जाता है। वैसे लोगों का इतिहास में कहीं अराम नहीं मिलता जिन्होंने खाली पेट और खाली दुश्मनों से लोहा लिया। यह इतिहास का एक महत्वपूर्ण मगर काला अध्याय है कि उच्च वर्ग के लोगों को महिमामंडित करते हुए एक बड़ी संख्या के स्वतंत्रता सेनानियों को जिन्होंने यूरोपियन के खिलाफ लोहा लिया गाड़ दिया गया। प्रथम आंदोलन जो बिहार में आहट दिया उसका नेतृत्व वीर कुंवर सिंह कर रहे थे। उस समय मुजफ्फरपुर, गया एवं शहाबाद एक प्रमुख स्थल था। एक बड़ी संख्या काश्तकारों की, जिसमें अधिकतर बड़कागांव क्षेत्र के ”भूमिहार” जाति किसानों का या उन्हें निलहा साहेब द्वारा सताया जा रहा था। निलहा साहबों तंग होकर सरैया कोठी से भागकर सिकंदपुर तालाब तथा दाउदपुर कोठी में शरण लिया आज भी सिकंदरपुर का कोठी जिलाधिकारी आवास एवं आईजी कोठी के रुप में तथा दाउदपुर कोठी जीवंत रुप में मौजूद है। लेकिन दुर्भाग्यवश इस आंदोलन को दरभंगा महाशय जैसे अंग्रेजों के टैक्स कलेक्टरों द्वारा दबा दिया गया। बड़कागांव के कई सपूतों को पीपल के पेड़ में टांगकर फांसी दे दी गयी और इतना भय चारों तरफ फैलायी गयी दहशत पैदा किया गया कि आज भी आस-पास के लोग सुबह-सुबह बड़कागांव का नाम लेने से परहेज करते हैं। भले हीं उन्हें नहीं पता इसके पीछे राज क्या है। इतना ही नहीं इनका नाम इतिहास के पन्नों ने छुआ हीं नहीं कुछ लोगों को उठाकर जेल में डाल दिया गया। लोगों ने लोटा आंदोलन चलाया लेकिन इस आंदोलन एवं इससे जुड़े लोगों का सरकार के रिकार्ड मे कोई नामो-निशां नहीं है। कुछ दिनों बाद स्वतंत्रता का आंदोलन स्कूल-कॉलेजों एवं धार्मिक स्थलों एवं आयोजनों के तले प्रारंभ हुआ। क्योंकि ब्रिटिश सरकार आंदोलनों को कुचलने हेतु ज्यादा सक्रिय हो गए थे। इसी कड़ी में लोकमान्य तिलक ने गणेश चतुदर्शी तथा शिवाजी जयंती जैसे आयोजनों पर बल दिया। जिसके माध्यम से लोगों में स्वतंत्रता आंदोलन के प्रति जागरुकता पैदा किया गया। इस तरह के आयोजन का इतिहास ”झांसी की रानी” के इतिहास में भी अंकित है।
उक्त आंदोलन से जुड़े नेताओं का आना-जाना लगातार धार्मिक आयोजनों के माध्यम से होता रहा। लोगों ने पटना, मुजफ्फरपुर, हाजीपुर, छपरा, वेगूसराय, बेतिया, पूर्णिया, देवधर इत्यादि जगहों को केन्द्र बिंदु बनाकर आंदोलन को तीव्र गति एवं सक्रियता प्रदान करते रहें। बहुत सारे स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े नेतागण हाजीपुर को अपना कार्यक्षेत्र बनाया क्योंकि पटना से सटा यह एरिया अंग्रेजों से नजदीक मगर ज्यादा सुरक्षित था ताकि उनके गतिविधियों पर कड़ी नजर रखी जा सके। हाजीपुर से छपरा, समस्तीपुर, मुजफ्फरपुर एवं आज के संपूर्ण उत्तरी बिहार में कार्य संचालन आसान था। सत्यदेव सन्यासी आर्य समाज जिन्होंने डीएबी लाहौर से शिक्षा प्राप्त की थी भगत सिंह से वरीय नेता थे नियमित क्षेत्रों का दौरा करते हुए स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करते रहें। इसी दरम्यान जुलाई 1914 में स्वतंत्रता आंदोलन के कुछ और कर्मयोगियों के साथ उनकी मुलाकात लालगंज वर्त्तमान वैशाली जिला में योगेन्द्र शुक्ला, रामआशीष ठाकुर, चन्द्रमा सिंह, अकलू राय, हीरा ठाकुर, मिसरी चौधरी, शिवधारी भगत, महेन्द्र दूसाध इत्यादि से हुआ। ये सभी अंग्रेजों के विपरीत अपने देश की खातिर खुफियागिरी और अस्त्र-शस्त्र आपूर्ति मे सहयोगी थे। इनकी जवाबदेही आंदोलन हेतु पैसे के जुगाड़ की भी थी जिसने इन्हें प्रेरित कर टेज्न से सरकारी खजाने को लूटने हेतु प्रेरित किया। आज 15 जून 2022 को लूट का 100 वॉ साल गुजरने पर हम उन वीर सपूतों के प्रति श्रद्धानवत् श्रंद्धाजली अर्पित करते हैं जो गुमनाम हैं। रामशीष ठाकुर जिन्हें लोग कीर्तनिया के नाम से जानते थे। ”अमर देश” गीत के गायक एवं लोकप्रिय गीत के माध्यम से लोगों में स्वतंत्रता के प्रति भक्ति जगाने वाले गया पैतृक पेशा के बदौलत आते-जाते वियाया (ठमंलं) पार्टी से संबंधित रहें। इन्होंने विभिन्न जातियों एवं समुदायों के लोगों को आंदोलन से जोड़ा जिसमें वालदेव मिश्रा (ब्राम्हण), शैयद पटवा (मुस्लिम), सोमन राम (चमार) सभी का गया के रास्ते देवघर, पूरी तथा कलकत्ता आना-जाना लगा रहता था। हरिचरण सिंह के माध्यम से इन्होंने काशी के ज्ञानवापी मुहल्ला मे अपनी पाव फैलायी जिनका प्राथमिक कार्य बंगाली बाबू को सुरक्षित उनके द्वारा बतलाए जगह पर पहुचाना होता था। कीर्तनिया नाम से लोकप्रिय रामशीष बंगाली बाबू के दिए नाम सरदार ठाकुर हो गए थे। सरदार के द्वारा बांकीपुर स्टेशन पर 21 दिनों तक चना का सत्तू एवं तशला संग्रहित किया गया जो चन्द्रमा सिंह, अकलू राय के देखरेख में बंगाली बाबू के साथ भष्मी माई मेला नेपाल तक पहुॅचायी गयी। बाद में पता चला सत्तू के बहाने साथ बंदुक एवं पिस्तौल की गोली का जुगाड़ किया गया था। सरदार ठाकुर का एक सैलून बांकीपुर में स्थापित हुआ जहॉं स्वतंत्रता के सिपाहियों का मेला क्षौर कार्य के नाम पर लगता था। कीर्त्तन के बहाने जुटान होता था मगर सरदार के ढ़ोलक मे असलहों का परिवहन आसानी से होता रहा। पटना से सोनपुर हाजीपुर का तेरसिया दियारा इनका प्रशिक्षण केन्द्र होता था। जब फिरंगियों के आशका पर ढ़ोलक वगैरह चेक करने की आशंका हुयी तब इन्होंने हाजीपुर जढ़ुआ अवस्थित वेगमबाग कुआं में अपना सारा असलहा डाल दिया तथा सारे पैसे लुकबाबा के पास बड़े पाकड़ के विशाल जड़ों मे गाड़ दिया। इस प्रकार इनकी सारी टीम की दिलेरी जांबाजी और होशियारी में चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह तथा अन्य कई आंदोलनकारियों के लिए सुरक्षित रास्ता बना दिया और हमेशा अपने प्रोटेक्शन में उन्हें आगे जाने दिया। चन्द्रमा सिंह, रामदेनी सिंह, त्रिलोकी सिंह सभी हाजीपुर स्टेशन डकैती केस जो 15 जून 1922 को टेज्न मे डाला गया जिस वैग में 639 रु 12 पैसे 9 आना इन्हें हाथ लगा। सरदार ठाकुर और जगरनाथ प्रसाद सिंह लगभग 02 कि0मी0 दूर मामा भांजा मंजार जढ़ुआ के पास इन्तजारत थे। वैग खाली करने के बाद वेगम बाग के कुआ में डाल दिया गया था। सभी क्रांतिकारी पटना भाग चले थे। बाद में वे छपरा जाने के क्रम मे दिघवारा पुलिस द्वारा पकड़ लिए गए। सरदार के साथ 20 लोगों को पकड़ा गया था। राम भजन सिंह एवं भरथ सिंह रिवाल्वर के साथ पकड़े गए थे। इन दोनों के अलावा सभी को भाड़ी चेतावनी देकर छोड़ दिया गया। बेतिया जासूसी केस में वैकुन्ठ शुक्ला एवं चन्द्रमा शुक्ला पर फणीन्द्र नाथ घोष के हत्या के जुर्म का आरोप लगा था। क्योंकि फणीन्द्र नाथ घोष के गवाह पर हीं भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव को फांसी की सजा हुयी थी इस केस में भी सरदार ठाकुर को गवाह के रुप में पेश किया गया था।
बाद के दिनों में बहुत सारे नेताओं ने अपना रास्ता बदल दिया। कुछ नेता कॉग्रेस के सदस्य होकर उसके बैनर तले कार्य करने लगे। सरदार पेशा विहिन, आय विहिन घर के दैनिक जरुरतों को पूरा करने हेतु वैद्यगिरी करने लगे। उन्होंने एक साईिकल खरीदी और स्थानीय स्तर पर इलाज करने लगे। अब सरदार डाक्टर साहब अपभ्रंश ”डाक साहब” के नाम से जाने जाते थे। वे बहुत सक्रियता से हाजीपुर कांग्रेस के साथ जुड़कर 1942 के आंदोलन में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहें। शेष जानकारी हेतु उनके गांव, पड़ोसी उनके नाते रिश्तेदारों से संपर्क जारी है। आज हम 100 वें साल पर दोबारा भूले-बिसरे स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति अपनी श्रद्धांजली अर्पित करते हैं। हमें इनके कृतित्व और व्यक्तित्व पर नाज है।
