सूर्यनारायण की कृपा से कर्ण को मिले थे कवच व कुंडल, जानें जल में खड़े होकर अर्घ्य देने के पीछे क्या है मान्यता

छठ महापर्व की शुरुआत शुक्रवार 17 नवंबर से होने जा रही है. ऐसे में बहुत से लोगों के मन में यह सवाल उठना लाजमी है कि आखिर नदी, तालाब और किसी जल स्त्रोत में ही छठ पूजा क्यों की जाती है. पटना के सनातन विज्ञान के अध्यनकर्ता और भारतीय संस्कृति के जानकार प्रेम पांडे बताते हैं कि कमर तक पानी में खड़े होकर ही सूर्यदेव को अर्घ्य को दिया जाता है, इसलिए बिना जल के अर्घ्य देना संभव नहीं है.

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जल में खड़े होकर अर्घ्य देना हमें आध्यात्मिक और धार्मिक लाभ तो पहुंचाता ही है. इसके अलावा इससे हमें शारीरिक लाभ भी मिलता है. डूबते और उगते हुए सूर्य की किरणें हमें रोगों से भी मुक्त करती है. दूसरे रूप से देखा जाए तो जल स्त्रोत के किनारे बिना किसी भेदभाव के इक्कठा होना सामाजिक एकता और समरूपता का संदेश भी देता है. इन सब के अलावा छठ पूजा नदियों, तालाबों के संरक्षण से जुड़ा संदेश भी देता है. यह महापर्व जितना धार्मिक रूप से विख्यात है, उतना ही पर्यावरण संरक्षण से भी जुड़ा हुआ है.

क्या है छठ की पौराणिक मान्यता?
मान्यताओं के अनुसार, छठ पर्व का आरंभ महाभारत काल के समय में माना जाता है. चुकी कर्ण का जन्म सूर्य देव के द्वारा दिए गए वरदान के कारण कुंती के गर्भ से हुआ था. इसी कारण कर्ण सूर्यपुत्र कहलाते हैं. सूर्यनारायण की कृपा से ही इनको कवच व कुंडल प्राप्त हुए थे. सूर्यदेव के तेज और कृपा से ही कर्ण तेजवान व महान योद्धा बने. ऐसा कहा जाता है कि कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे. इस पर्व की शुरुआत सबसे पहले सूर्यपुत्र कर्ण ने ही सूर्य की पूजा करके की थी. कर्ण प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में खड़े रहकर सूर्य पूजा करते थे और उनको अर्घ्य देते थे. आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही पद्धति प्रचलित है. इसके अलावा एक और मान्यता के अनुसार मुंगेर में सीता द्वारा छठ व्रत करने की कथा भी प्रचलित है.

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