प्रकाश सिन्हा (संपादक) की कलम से।
मुज़फ़्फ़रपुर | चित्रगुप्त एसोसिएशन चुनाव को लेकर जहां एक ओर समाज में जागरूकता बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर भारी निराशा और असंतोष की लहर भी दिखाई दे रही है। वजह है – वर्तमान कमेटी के पदाधिकारियों की चालाक रणनीति, जिसमें चेहरे बदले जा रहे हैं लेकिन नीयत और पकड़ वही पुरानी है।

मुखौटा बदलकर फिर से क़ब्ज़े की तैयारी?
सूत्रों और समाज के जागरूक वर्गों का मानना है कि एसोसिएशन की वर्तमान कमेटी के सभी पदाधिकारी इस बार नए-नए पदों के लिए चुनाव लड़ रहे हैं। हालांकि उनके इरादे वही हैं — संस्था को पूर्व की तरह ही अपने क़ब्ज़े में बनाए रखना। यह एक सोची-समझी रणनीति है, ताकि बाहरी तौर पर बदलाव का भ्रम पैदा किया जाए, लेकिन वास्तविक नियंत्रण उन्हीं लोगों के हाथ में बना रहे जिन्होंने वर्षों से इस संस्था को केवल अपने हित के लिए इस्तेमाल किया है।

कायस्थ समाज के नाम पर सीमित सत्ता का खेल
यह संस्था कायस्थ समाज के नाम पर पंजीकृत तो है, लेकिन इसका संचालन केवल कुछ चुनिंदा स्वार्थी तत्वों के हाथों में सिमटा हुआ है। आरोप है कि आम कायस्थ परिवारों को वोटर न होने के नाम पर जानबूझकर इससे दूर रखा गया है। इससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया की गंभीर अनदेखी होती है और समाज में व्यापक असंतोष पनप रहा है।

विकास के लिए नेतृत्व परिवर्तन ज़रूरी
समाज के युवाओं और प्रबुद्ध वर्ग की मांग है कि चित्रगुप्त एसोसिएशन को अगर सच में कायस्थ समाज के विकास का माध्यम बनाना है, तो पुराने पदाधिकारियों को स्वेच्छा से पद छोड़ना चाहिए और संरक्षक की भूमिका निभाते हुए नए, ऊर्जावान और विचारशील युवा नेतृत्व को आगे लाना चाहिए।
ऐसा करना न सिर्फ संस्था की विश्वसनीयता को बढ़ाएगा, बल्कि समाज में एक सकारात्मक बदलाव की शुरुआत भी करेगा।

नतीजा तय: वही चेहरे, बदले पद
हालांकि अनुमान यह लगाया जा रहा है कि चुनाव के परिणामों में कोई बड़ा बदलाव देखने को नहीं मिलेगा। सिर्फ पद बदल जाएंगे — जो महामंत्री था वह अध्यक्ष बन जाएगा, जो संगठन मंत्री था वह महामंत्री और जो मंत्री था वह संगठन मंत्री बन जाएगा — लेकिन कमेटी के भीतर की सत्ता संरचना वही बनी रहेगी।

क्या यह संस्था सिर्फ नाम की लोकतांत्रिक संस्था बनकर रह जाएगी?
इस चुनाव ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या चित्रगुप्त एसोसिएशन जैसी सामाजिक संस्था अब भी समाज सेवा के लिए है, या फिर कुछ लोगों की सत्ता और स्वार्थ की ढाल बन चुकी है?

समय है चेतने का — कायस्थ समाज को अब खामोश दर्शक नहीं, निर्णायक भूमिका निभानी होगी।
सिर्फ चुनाव नहीं, यह एक सामाजिक आंदोलन का स्वरूप ले सकता है — जहाँ मुद्दा पद नहीं, उद्देश्य है कायस्थ समाज का असली उत्थान।
“अगर चेहरों की अदला-बदली से ही बदलाव आता, तो हर पुरानी कहानी नई लगती!”

