🖋️ प्रकाश सिन्हा, संपादक – मुजफ्फरपुर न्यूज
आज देश में जब हम युवाओं की कामयाबी की कहानियाँ सुनते हैं — अमेरिका में नौकरी, यूरोप में पढ़ाई, मल्टीनेशनल कंपनियों में पैकेज की गूंज — तो हर माँ-बाप की आंखें भी उम्मीद से चमक उठती हैं। पर इस चमक के पीछे एक सुनापन, एक तन्हाई भी पनपती है — जो सिर्फ वही माँ-बाप समझ सकते हैं, जिनके बेटे-बेटियाँ दूर देशों में सफल ज़रूर हो गए, लेकिन साथ छोड़ गए।

क्या यही सफलता है?
जहाँ बँगला है, कार है, डॉलर की आमद है — लेकिन माँ की दवाइयों का हिसाब पूछने वाला कोई नहीं,
जहाँ एयरकंडीशंड ऑफिस है, लेकिन उस पुराने मकान में पसीने-पसीने होते पिता को पंखा झलाने वाला कोई नहीं।
एक वायरल होती चिट्ठी में एक बेटा अपने पिता से कहता है:
“आपने ही मंदिर की जगह कॉन्वेंट भेजा, खेल के मैदान की जगह कोचिंग भेजा, दोस्ती की जगह प्रतिस्पर्धा दी, ताकि मैं बड़ा बन सकूं। आज जब मैं बड़ा बन गया, तो कहते हैं — तुम सेवा नहीं कर पाए!”
यह पत्र महज़ एक बेटे की भावनात्मक अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए आईना है।
हमने बच्चों को हर वो चीज़ दी जो ‘सक्सेसफुल’ बनने के लिए चाहिए थी — पर संवेदनशील बनने की शिक्षा नहीं दी।

👣 माँ-बाप ने क्या चाहा था?
उन्होंने कभी ये नहीं कहा कि बेटा करोड़पति बनो। उन्होंने सिर्फ इतना चाहा था कि बुढ़ापे में उनका सहारा बनो। वो चाहते थे कि शाम को कोई दरवाज़ा खोले और कहे, “पापा, चाय लाऊँ?”
लेकिन बेटे को तो सिखाया गया — “खुद को स्थापित करना है, खुद को साबित करना है, पीछे मुड़ना नहीं!”
और इसी ‘खुद’ में कहीं ‘हम’ खो गया।
📌 सवाल सिर्फ बेटों से नहीं है
सवाल समाज से है, शिक्षकों से है, माता-पिता से भी है।
क्या हम अपने बच्चों को इतनी दौड़ में झोंक रहे हैं कि वो रिश्तों की नमी और परिवार की गर्माहट ही भूल जाएं?
जब बच्चे छोटे होते हैं, हम उन्हें ‘टॉपर्स’ बनाने में लगे रहते हैं —
पर क्या हमने कभी उन्हें ये भी सिखाया कि माँ के पैरों की चप्पल भी जीवन की सबसे बड़ी प्रेरणा है?
या कि पिता का मौन संघर्ष ही असली मोटिवेशन स्पीच है?

🌱 बदलाव की ज़रूरत है
समाज को एक बार फिर से सफलता की परिभाषा बदलनी होगी।
– अब सिर्फ डिग्रियाँ नहीं, संस्कार भी ज़रूरी हैं।
– सिर्फ विदेश नहीं, परिवार भी ज़रूरी है।
– और सिर्फ प्रोफेशनल ग्रोथ नहीं, इमोशनल ग्रोथ भी ज़रूरी है।

💬 निष्कर्ष:
“सफलता की ऊँचाई, माँ-बाप की तन्हाई!”
ये केवल एक लाइन नहीं, हमारे समाज की एक करुण सच्चाई है।
हर बेटे-बेटी को ये याद रखना चाहिए कि
जिन हाथों ने तुम्हें चलना सिखाया, उन्हीं को बुढ़ापे में सहारा चाहिए होता है।
पैसा कमाओ, नाम कमाओ — लेकिन माँ-बाप को मत खोओ।
क्योंकि जब वो नहीं रहेंगे…
तो फिर किसी भी सफलता में वो सुकून नहीं मिलेगा, जिसकी तुमने कल्पना की थी।